बड़ी बहू - विश्वनाथ सिंह

बड़ी बहू - विश्वनाथ सिंह

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पढ़ने का समय

सुबह के आठ ही बजे थे, पर मेहरा हाउस की रसोई में मानो जंग का मैदान सजा था। गैस पर चाय उबल रही थी, दूसरे बर्नर पर दूध ऊपर आने को था, और तवे पर पराठा सिक रहा था। बीच में खड़ी थी नेहा — घर की बड़ी बहू।


तभी पीछे से तेज़ आवाज़ आई —

"भाभी! कितनी बार कहा है, फोन लेकर किचन में मत आया करो। बहू के हाथ में हर वक्त मोबाइल शोभा नहीं देता।"


नेहा मुस्कुराकर बोली,

"ठीक है, अब ध्यान रखूँगी।"


तभी अंदर आईं मीना जी, सासू माँ —

"क्या हो रहा है सुबह–सुबह बवाल?"


रीता फौरन बोली,

"कुछ नहीं मम्मी, बस भाभी को समझा रही थी कि फोन ज़रा कम चलाया करें। आजकल की लड़कियाँ तो फोन से ही चिपकी रहती हैं।"


मीना जी ने नेहा की तरफ देखा,

"रीता गलत तो नहीं कह रही। तू दिन भर स्कूल में रहती है, वहाँ कितना फोन चलाती होगी, हमें क्या पता। घर में तो थोड़ा परहेज रख।"


नेहा ने कुछ कहने की बजाय सिर झुका लिया। मन में उठी बात वहीं रुक गई — "ऑफिस में फोन नहीं, काम करती हूँ, तभी तो इस घर के खर्चे चल पाते हैं..."


नेहा की शादी को सिर्फ़ डेढ़ साल हुआ था। वो शहर के एक अच्छे स्कूल में टीचर थी। रोज़ सुबह घर का काम निपटा कर निकलती और लौटते ही फिर घर के काम में जुट जाती।


रीता अभी पढ़ाई कर रही थी — एम.एड की छात्रा। खुद को "घर की बड़ी बेटी" समझती और भाभी को निर्देश देना अपना हक़ मानती थी।


टकराव और ताने

एक शाम, जब सभी डिनर पर बैठे थे, मीना जी ने सब्ज़ी परोसते हुए कहा,

"देख बेटा करण, आजकल की बहुएँ फोन में ज़्यादा खोई रहती हैं। नेहा तो फिर भी ठीक है, पर इसे संभाल लेना, बाद में माँ बनने के बाद भी अगर यही आदत रही तो बच्चे का क्या होगा?"


करण ने माहौल हल्का करने को मुस्कुराते हुए कहा,

"अरे माँ, क्यों चिंता करती हो? इसका फोन तो बच्चों की फोटोज़ और नोट्स से भरा है।"


रीता तुनककर बोली,

"भैया, आप हमेशा भाभी का ही पक्ष क्यों लेते हैं? दादी तो कहती थीं कि बहू को परायों से बात नहीं करनी चाहिए, और ये तो रोज़ स्कूल के पेरेंट्स, प्रिंसिपल... सब से बात करती रहती हैं!"


करण का चेहरा गंभीर हुआ,

"रीता, ये जमाना बदल चुका है। वो टीचर है, काम का तरीका ऐसा ही होता है। अगर बहुएँ घर से बाहर काम करती हैं, तो उन्हें बोलने–समझने की आज़ादी भी देनी पड़ेगी।"


बदलाव का अहसास

दिन बीतते गए। रीता की “समझाइशें” जारी रहीं —

"भाभी, ज़रा दुपट्टा ले लिया करो।"

"भाभी, हँसते हुए धीरे बोला करो, बाहर तक आवाज़ जाती है।"

"भाभी, अजनबियों से सीधा आँख मिलाकर मत बात किया करो।"


नेहा रोज़ खुद को समझाती — "चुप रहना ही ठीक है, झगड़ा किया तो अक्खड़ कहलाऊँगी।"


कुछ महीनों बाद रीता की शादी तय हुई — अग्रवाल जी के बेटे निखिल से। शादी शानदार हुई, और रीता ससुराल गई — एक बड़ी, परंपरागत जोइंट फैमिली में।


सास संतोष जी ने मुस्कुराते हुए कहा,

"बहू बहुत सभ्य लगती है, बस एक बात — हमारे यहाँ बहुएँ फोन बहुत कम चलाती हैं, घर और परिवार पर ध्यान देना होता है।"


रीता के चेहरे पर हल्की मुस्कान थी; दिल में सोचा, "भाभी तो दिन भर फोन में लगी रहती थीं..."


भूमिका बदलती है

ससुराल की ज़िंदगी शुरू हुई। सुबह पाँच बजे सास की आवाज़ —

"रीता, उठ गई? दूध ले आओ, पूजा करनी है!"


छह बजे तक पूरा घर उसकी जिम्मेदारी बन चुका था। फोन छूने का मौका सिर्फ़ माँ के मिस्ड कॉल देखने में मिलता।


एक दिन जब उसने कुछ देर बैठकर भाभी नेहा का मैसेज देखा — “कैसी हो रीता?” — तो जवाब लिखने लगी,

"भाभी, वक्त ही नहीं मिलता..."


पीछे से आवाज़ आई —

"रीता! दूध गिर रहा है, और तू फोन देख रही है? बहू के हाथ में सुबह–सुबह मोबाइल सुंदर लगता है क्या?"


उस पल रीता को अपने पुराने शब्द गूँजते से लगे — "भाभी, फोन मत चलाइए..."


धीरे–धीरे उसे एहसास हुआ कि जिन नियमों से उसने कभी दूसरों को बाँधा था, वे अब उसी पर लागू हो रहे हैं।


आत्मबोध

कुछ सप्ताह बाद, रात में जब सब सो गए, उसने नेहा को फोन किया।

नेहा ने हँसकर कहा,

"अरे, आज छोटी बहन को याद आई भाभी की!"


रीता ने धीमे से कहा,

"भाभी… अब समझ आ गया है, रोल नहीं बदलते, बस ज़िम्मेदारियाँ बदलती हैं..."


नेहा शांत रही, फिर बोली,

"दुख है ये सुनकर, पर अच्छा है कि तू समझ गई। अगली बार अगर तेरी भी कोई बहू आए, तो उसके आगे वही पुरानी लकीरें मत खींचना।"


रीता मुस्कुराई,

"भाभी, वादा करती हूँ, मैं अपनी बहू को बेटी की तरह रखूँगी।"


समय का चक्र

दो साल बीते, नेहा माँ बनी — छोटा आर्यन उसके घर का उजाला बना। मीना जी अब नर्म हो चलीं।

गर्मी की छुट्टियों में रीता पहली बार मायके आई।


मीना जी ने गले लगाते हुए कहा,

"कैसी है मेरी बेटी?"


रीता हँसकर बोली,

"अब समझ आया मम्मी, जब खुद बहू बनती है, तो नियम ज़्यादा दिखते हैं।"


रसोई में नेहा बिना दुपट्टे के पराठे बेल रही थी। रीता ने हौले से कहा,

"भाभी, आज दुपट्टा नहीं लिया?"


नेहा मुस्कुराई,

"जब रोज़ तू कहती थी, तब लेती थी। अब तेरी क्लास बंद हो गई।"


मीना जी बाहर से बोलीं,

"अब क्या कहें, छोटा बच्चा है, दौड़ती–भागती रहती है। और वैसे भी, अब जमाना बदल गया है।"


रीता ने मुस्कुराकर माँ की तरफ देखा,

"जमाना तब भी तो नया ही था, बस नज़रें पुरानी थीं।"


करण भी पास आ गया,

"तब भी यही कहता था, बस सुनता कोई नहीं था।"


नेहा ने प्यार से कहा,

"बस अब इतना ध्यान रखना — जब तेरी भी कोई छोटी आए, पहले खुद उसकी जगह खड़ी होकर ही बोलना।"


रीता की आँखें भर आईं,

"भाभी, मैंने बहुत बातें बनाई थीं..."


नेहा ने हँसते हुए कहा,

"कोई बात नहीं, तू थी इसलिए मैंने सहा और सीखा। अब वो सब तेरे लिए सीख बन गया है।"


मीना जी दरवाज़े से मुस्कुराईं — उस मुस्कान में सुकून भी था और सीख भी।

"शायद अब घर में बहू–ननद नहीं, दो बहनें रहती हैं," उन्होंने मन ही मन कहा।


लेखक: प्रभात कुमार